बिहार के वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार सालों के बाद इस बार छठ पूजा में अपने गांव आए हैं. अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य देने के बाद वह अपने घर लौट गए हैं. इससे पहले माथे पर दौउरा उठाकर छठ घाट पहुंचे. अपने फेसबुक प्रोफाइल पर उन्होंने लिखा है कि ढलता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जाएगा। अस्ताचल सूर्य को नमस्कार के बाद दौरा उठान। आप सभी को छठ की शुभकामनाएँ। घाट पर जाने से पता चला कि गाँव में मेरी रिश्तेदारियाँ बदल गई हैं। पहले लोग बाबू बुलाते थे, फिर भैया बुलाने लगे और अब बच्चे दादा जी और नाना जी बुलाने लगे हैं। मेरी त्वचा से ही उम्र का पता चल रहा है!

रविश कुमार अपने किताब “इश्क़ में शहर होना” में लिखते हैं कि हम बिहारियों का भले किसी शहर में अपना घर या फ्लैट हो मगर हम हमेशा उसे रूम या डेरा ही कहते हैं। घर हमेशा वो गांव वाला घर होता है जहां से हम पलायन करते हैं।
जैसा अधिकतर बिहारियों की कोशिश होती है कि छठ में घर लौटा जाय, रविश भी छठ में लौट आए हैं बिहार। वे अपने पैतृक गांव पूर्वी चंपारण के जितवारपुर छठ मनाने पहुंचे हैं।

रविश आज देश के सबसे प्रतिष्ठित और लोकप्रिय पत्रकार हैं मगर आज भी उनके बोली, आचरण, काम और संस्कार में बिहारीपन कायम है।