बिहार में नीतीश कुमार के लिए महागठबंधन के लिए रास्ते बंद हैं। ऐसे बयान अक्सर राजद नेताओं की ओर से आते रहे हैं। मगर गुरुवार को जगदानंद सिंह ने कहा कि वे राजद के साथ आने पर नीतीश कुमार का स्वागत करने को तैयार हैं। जाहिर है जगदानंद सिंह अपने पहले के बयान से पलट गए हैं और नीतीश कुमार की अहमियत को मानने को मजबूर हुए लगते हैं। दरअसल, बिहार की सियासत में गठबंधन की राजनीति के अगर कोई सबसे बड़े माहिर पॉलिटिशियन हैं तो वह नीतीश कुमार ही हैं। कभी RJD जैसी धुर विरोधी तो कभी मुद्दों पर BJP से दूरी की बात बताते हुए 18 वर्षों तक सियासत को साधने में अगर किसी ने महारत हासिल की है तो वह भी नीतीश कुमार ही हैं। यूं कह लें कि नीतीश कुमार अपने सियासी हुनर से बिहार की सियासत के दो शक्तिशाली ध्रुवों (राजद व भाजपा) को संतुलित करते हैं तो अतिशियोक्ति नहीं होगी।

सबसे खास यह है कि बिहार के दो सियासी खेमे में इस बात को लेकर हमेशा रस्साकशी भी चलती रहती है कि नीतीश कुमार उनके खेमे में आ जाएं। गुरुवार के बाद शुक्रवार भी आया और राजद के जगदानंद सिंह के बयान के बाद सीएम नीतीश कुमार की पार्टी जदयू कोटे से मंत्री विजेंद्र यादव का वह बयान भी आया जिसने नीतीश कुमार की नीतियों को तो स्पष्ट किया ही साथ ही उनकी अहमियत को भी जता दिया। विजेंद्र यादव ने एक पत्रकार के सवाल पर कहा कि बिहार में सत्ता की जरूरत के लिए भाजपा और जदयू एनडीए सरकार चला रही है। दोनों ही दलों की विचारधारा, नीतियां और सिद्धांत अलग-अलग हैं।

नीतीश कुमार के आगे सब मजबूर!

जाहिर है एक विजेंद्र यादव के इस बयान के बाद और स्पष्ट हो गया कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होते हुए भी यह अख्तियार नहीं रखती कि नीतीश कुमार को आंख दिखा सके। राजनीति के जानकारों की नजर में वास्तव में इसके पीछे वह सियासी स्थिति है जिसमें जगदानंद सिंह का वह बयान काम करता हुआ नजर आ रहा है जहां वे विरोधी होते हुए भी नीतीश कुमार का स्वागत करने को तैयार खड़े दिखते हैं। अब सवाल यही है कि आखिर नीतीश कुमार दोनों ही शक्तिशाली राजनीतिक धुर विरोधी खेमों (राजद और भाजपा) की सियासत के केंद्र बिंदु कैसे बने हुए हैं?

विधानसभा की स्थिति में छिपा है सियासी गणित!

बिहार की सियासत में संतुलन साधने के लिए नीतीश कुमार ही सेंटर में क्यों हैं यह वर्तमान विधानसभा की स्थिति भी बताती है। दरअसल, कुल 243 सदस्यीय असेंबली में बीजेपी के सदस्यों की संख्या 77 है को आरजेडी के 75 विधायक हैं। जेडीयू के पास 46 एमएलए हैं तो 19 विधायकों के साथ कांग्रेस चौथे नंबर पर है। भाकपा-माले के पास 12, असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM के पास 5 तो जीतम राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के चार एमएलए हैं। इसके अतिरिक्त भाकपा और माकपा के दो-दो विधायक हैं। ऐसी स्थिति में किसी भी गठबंधन को बहुमत के लिए 122 सीटें चाहिए होंगी।

सियासी चाल की सबसे बड़ी गोटी नीतीश के पास!

सियासी स्थिति यह है कि किस भी सूरत में बीजेपी और आरजेडी एक मंच पर नहीं आ सकती है। ऐसे में भाजपा-जदयू मिलकर 77+46= 123 की संख्या है। इसी तरह राजद, जदयू के साथ भाकपा माले और कांग्रेस का आंकड़ा 75+46+19+12= 152 हो जाता है। वहीं, दूसरी स्थिति यह है कि भाजपा+जदयू+ हम को मिलाकर 127 का आंकड़ा है जो बहुमत के लिए काफी है। अब अगर भाजपा और राजद साथ नहीं आ सकते तो जदयू और राजद के साथ आने से सत्ता का गणित पूरी तरह बदल जाएगा। ऐसे में किसी भी सूरत में सियासी चाल चलने की सबसे बड़ी गोटी नीतीश कुमार (जदयू) के पास ही है।

सियासी हुनर के मास्टर हैं नीतीश!

क्या ऐसी स्थिति अभी ही है या पहले भी ऐसा ही था? दरअसल, इसके लिए हमें कुछ आंकड़ों का विश्लेषण करना होगा क्योंकि इससे काफी कुछ कहानी सामने आ जाती है। लोकसभा चुनाव के नजरिये से देखें तो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी तीनों अलग-अलग चुनाव लड़ीं थीं। ऐसे में वोट शेयर देखें तो बीजेपी को 29.9, आरजेडी को 20.5 और जेडीयू को 16 कांग्रेस को 8.6, एलजेपी को 6.5 प्रतिशत मत मिले थे। इससे स्पष्ट है कि इतने कम वोट बैंक के साथ नीतीश कुमार खुद एक राजनीतिक ताकत तो नहीं हो सकते हैं।

आंकड़े भी कहते हैं सियासी हकीकत!

हालांकि, राजनीति के जानकार बताते हैं कि उनका साथ चाहे वो बीजेपी के साथ हो या फिर आरजेडी के साथ उसे निर्णायक बढ़त दिलाने का दम रखते हैं.यह बात वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में स्पष्ट हो गई क्योंकि तब नीतीश कुमार की जदयू और राजद ने महागठबंधन बनाया और लालू-नीतीश एक मंच पर आ गए. नीतीश कुमार जैसे ही राजद खेमे से जुड़े तो वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद-जदयू को प्रचंड बहुमत मिला और 2015 में राष्ट्रीय जनता दल 80 सीटों के साथ बड़ी पार्टी रही थी और जनता दल यूनाइटेड को 71 सीटें मिली थीं.

आंकड़े भी कहते हैं सियासी हकीकत!

हालांकि, राजनीति के जानकार बताते हैं कि उनका साथ चाहे वो बीजेपी के साथ हो या फिर आरजेडी के साथ उसे निर्णायक बढ़त दिलाने का दम रखते हैं। यह बात वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में स्पष्ट हो गई क्योंकि तब नीतीश कुमार की जदयू और राजद ने महागठबंधन बनाया और लालू-नीतीश एक मंच पर आ गए। नीतीश कुमार जैसे ही राजद खेमे से जुड़े तो वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद-जदयू को प्रचंड बहुमत मिला और 2015 में राष्ट्रीय जनता दल 80 सीटों के साथ बड़ी पार्टी रही थी और जनता दल यूनाइटेड को 71 सीटें मिली थीं।

इग्नोर नहीं कर सकते नीतीश फैक्टर!

लोकसभा के इन आंकड़ों से जाहिर है कि नीतीश कुमार जिधर भी जाते हैं उस गठबंधन का पलड़ा भारी हो जाता है। बिहार के संदर्भ में ये बात वर्ष 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में साबित भी हुई, जब जेडीयू- बीजेपी ने साथ मिलकर एनडीए की सरकार बनाई। वर्ष 2005 और 2010 के विधानसभा चुनाव में यह बात साबित भी हुई, जब जेडीयू- बीजेपी ने साथ मिलकर एनडीए की सरकार बनाई। इसी तरह वर्ष 2020 विधान सभा चुनाव में भी नीतीश फैक्टर के कारण एनडीए की सरकार बनी जो अब भी चल रही है।